Wednesday 17 February 2016

देशद्रोह बनाम देशप्रेम

ऐसा है,
कि अगर देश के खिलाफ भौंकने वालों की निंदा करो , तो भक्त कहलाओगे,
और अगर असंवैधानिक तरीके से कोर्ट के बाहर मारपीट करने वाले एम.एल.ए की निंदा करो, तो देशद्रोही गद्दार कहलाओगे।
तो कुल मिला के बात ये है, कि भक्त बनो या देशद्रोही, लेकिन भारतीय बनने की गलती मत करना ! वरना दोनों तरफ से कुटाओगे। बेहतर है, कि एक साइड ले लेयो और टांग के नीचे से कान पकड़ लेयो। और फिर लड़ो चोंच-लड़ाई, पूरे क्रांति-ध्वज के साथ। लाल-सलाम, केसरिया-सलाम, हरा-सलाम, सब मार लेयो।
लेकिन सुन लेयो, शाम को घर जल्दी आ जाना। घर में खाना बना होगा, च्यवनप्राश और दूध पीके आराम से सो जाना। कल फिर मुर्गा बाँग देगा! कुकडूकूSSSSS कुकडूकूSSSSS
फितूर कैसी है बे ? देखने लायक है?

Wednesday 15 October 2014

"Bye Bye सुमि"



10वीं कक्षा में पढ रहा था तो बगल वाले घर में एक लड़की रहा करती थी। पूरा नाम तो कभी पता नहीं चला, पर उसके घर वाले उसे ‘सुमि’ बुलाया करते थें। वो रोज़ 9 बजे स्कूल बस के इंतज़ार में अपने घर के गेट के सामने खड़ी हो जाती और मैं उससे 15 मिनट पहले अपने गेट के सामने खड़ा हो जाता - उसके इंतज़ार में। कभी कभी जब मुड़कर वो मेरी तरफ देखती, तो मैं मुस्कुरा दिया करता था। शायद एक दो बार उसने भी अपनी मुस्कराहट बहकी हवाओं में लपेटकर मुझे भेजा था। शायद या यक़ीनन में मैं उलझना नहीं चाहता हूँ, जो भी रहा हो, मेरा दिन काफी रूमानी सा गुज़रता था।

95-96
में शाहरुख़ खान की DDLJ का गज़ब हल्ला फैला हुआ था। मैंने भी उस फिल्म के कई नुस्खे आजमाया, खासकर वो ‘पल्लट’ वाली। नौवीं क्लास में उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया। कहानी वही ख़त्म हो गयी। गर्मी की छुट्टियों में जब वो लौटकर आयी तो पता चला कि उसके पापा का ट्रान्सफर हो गया है। जब पहली बार सुना, तब चारो ओर अजीब सी मायूसी छा गयी। मुस्करा भी रहा था और मुस्करा भी नहीं पा रहा था। एक सप्ताह तक 9 बजने में 15 मिनट पहले गेट पर जाता, कुछ पत्थर चुनता, इधर उधर फेंक के बापस घर में चला आता। एक दिन तो इतना बुरा लगा था कि आईने के सामने खड़े होकर, सर को थोडा सा झुकाकर, हाथ आगे की ओर बढाकर फ़िल्मी अंदाज़ में बोल पड़ा -"तुसी जा रहे हो, तुसी मत जाओ"।

साला न तो म्यूजिक था न ही स्पेशल इफ़ेक्ट, पर दिल का एक कोना किसी भी चीज़ से synchronize नहीं कर पा रहा था। किसी को बताने पर यही होता कि वो बुद्धिमान अपने अनुभव को Larger than life समझकर बक देता - "बेटा बचपन का इश्क, बचपना होता है". बचपन का इश्क, बचपना होता है; बुढ़ापे में पता नहीं कैसे वो शायरी बन जाता है।

मैं उस किस्से को किसी पुराने रुमाल की तरह भूल गया .

इश्क़ मुहब्बत तो समझिये बस कोका-कोला हो गया। सो मिला जुला कर गाड़ी 4 साल तक बिना पेट्रोल के चली और वही की वही पाई गयी। फिर दरभंगा की गाड़ी दिल्ली निकल पड़ी उसके बाद गुजरात (गाँधीधाम) में नौकरी लगी। रोटी और मोबाइल सिग्नल छोड़कर सब ढंग से मिल रहा था। एक दिन बचपन का ख्वाब तब जाग उठा जब गुजराती पेपर मे इंडिया-वेस्टइंडीज का वनडे मैच राजकोट में होने का शिड्यूल देखा। बस जूनून था टिकट का जुगाड़ किया और चल पड़ा।

Main
बस स्टैंड तक जाने के लिए एक कनेक्टिंग बस चलता है। चुकी टाइम discipline के लिए भारत का बहुत मज़ाक उड़ता है, इसलिए मैं एक घंटे पहले ही निर्धारित स्थान पर पहुच गया। 10-15 मिनट खड़े रहने के बाद नानी जब याद आने लगी, तब pesticides पीने का सोचना पड़ गया। कुछ डकारें मारकर जब सामान के पास पंहुचा तो scene कुछ ख़तरनाक हो चूका था। मेरे bag के पास एक सुन्दर सी लड़की खड़ी थी। अगला 10 मिनट सन्नाटे में गुज़र गया। न मैं कुछ सोच पा रहा था, और ना ही कुछ बोल पा रहा था। Probably, सुन भी नहीं पा रहा होऊंगा, इसलिए सन्नाटा था। 10 मिनट बाद

लड़की - आप राजकोट बस का इंतज़ार कर रहे हैं क्या?
मैं - हाँ
मैं - अ अ and you ?
लड़की - मैं भी, but they say कि अभी 20 मिनट लेट है
मैं - ohkay

ज़िन्दगी में बहुत चीज़ों के लिए सोचा है कि लेट हो जाए तो मज़ा आ जाये और no doubt आज भी वही सोच रहा था

मैं - Are you new in the city?
लड़की- नहीं, मैं 2 साल से यहीं हूँ
मैं - अच्छा शहर है न ?
लड़की - हाँ, आप नए हैं क्या
मैं - आप कह रही हैं तो नया ही होऊंगा

एक हलकी सी मुस्कराहट के बाद चाय का माहौल बन चूका था। मैं हवा में हलकी नमी और ठंडापन महसूस करने लगा। बहुत try मारा कि मुंह से भाप भी निकल आये। ख़ैर!

मैं- चाय या कॉफ़ी
लड़की - its fine

मैं यूँ गया और यूँ आया। हाहा आज sense of humor भी मस्त sense में था। लौटकर आया तो लड़की के साथ एक लड़का खड़ा था। अब मेरी किस्मत धोनी जैसी तो है नहीं कि वो उसका भाई निकलता। चाय की चुसकिया दिल पर खंजर चला रही थीं  

बचे बीस-तीस मिनट मैंने पत्थर चुनकर फेंकने में गुज़र दिए। Connecting बस में शांति से बैठकर गाने गुनगुनाने लगा। दुनिया को बस ये नहीं दिखना चाहिए था कि अभी यहाँ कोई accident हुआ है। बस में मेरे बगल में आकर वो खड़ी हो गयी। उसका boyfriend उसे छोड़ने तक ही आया था। जब तक वो बैठ पाती एक ज़नाब excuse me बोलकर मेरे साथ बैठ गए। अँगरेज़ गए पर इन्हें क्यूँ छोड़ गए।

30
मिनट में हम main bus-stand पर थें। उतरकर, मैंने पूछा राजकोट में कहाँ जाना है? उसने हसते हुए जवाब दिया - "मैं अहमदाबाद जा रही हूँ"। दो मिनट तक तो ऐसा लगा कि मैं भी वही चला जाऊ। न किसी ने नाम पूछा, न ही पता। बस पर वो बैठ चुकी थी....मैंने धीमे से बोला "Bye Bye सुमि"

Monday 28 April 2014

सफल कंपनी का कुशल प्रबंधक


जब भी उन्हे देखता हूँ, क्यों मुझे लगता है ?
जैसे वें किसी नए जमाने के मुनीम है
नई वेष-भूषा और मुद्राओ वाले
इनका खोजी दिमाग दिन-रात करता रहता हिसाब
कि कितना रखा जाए, एक मनुष्य को घर में ?
कितना वर्तमान में, कितना भविष्य में ?
कितना रहने दिया जाए, एक मनुष्य के भीतर मनुष्य में ?
जब भी उन्हे बोलते सुनता हूँ, क्यों मुझे लगता है  
जैसे हमारे मोहल्ले के जुआरी है
पहन लिए हो एक नई पोशाक या फिर भाड़े के हत्यारें ने सीख ली हो विदेशी भाषाएँ, मुद्राएँ
उनकी ओर से आती हर आवाज मुझे दासता की निशानी लगती
वे हर बार हाँक लगाते अपने मालिकों की तरफ से
जैसे अपने अँतड़ियों को भी जुए की दाँव पर लगा बैठे है । 

जब भी उन्हे देखता हूँ, मुझे क्यों लगता है ?
जैसे वे हमारे समय के सफल नौजवान है
वे वहाँ पहूँच चूके है जहाँ हम भी पहूँचना चाहते थे शायद
वे हमारी उन्ही इच्छाओं को लेकर आगे बढे
वे नए बाजार के कारिंदे है
वे चलतें है एक सौदागर के आगे-आगे
उसकी ओर से हाँक लगाते
उसके लिए जगह बनाते
एक मनुष्य के जीवन में
वे अपने दिमाग को अधिक से अधिक
बिकाऊ बना रहे
और बेच रहे नए-नए मालिको कों ॥

Sunday 27 April 2014

!! मेरा पहला अफसाना !!


मेरा पहला अफसाना
वकील साब का मकान किसी दर्शनीय स्थल से कम नही था शाम के समय वहाँ हर एक उम्र के लोग किसी खास मकसद से इक्ठठा हो जाते (और कुछ बिना मकसद के भी)! मै खुशनसीब था क्योकि मै किराये से उस मकान मे रहता था और उस मकान के एक कोने की हकीकत बयाँ करती ये कहानी..............
मेरे कमरे के बगल मे रहने वाली रोजी (जी हाँ बड़ा प्यारा नाम था) प्रत्येक शाम को तीसरी मंजिल की छत पर घुमने जाती थी और मै प्रत्येक शाम को सीढी के बगल वाले कमरे मे पढाई के बहाने उसे देखने के लिए बैठा रहता था ।
नागिन सी लहराती हुई जब रोजी सीढियाँ चढती तो सीढियाँ उपर को जाती और गिलहरी सी फुदकती हुई उतरती थी तो सीढियाँ नीचे की ओर आती । उसे सीढियाँ पर ऐसे देखना मेरे मन को उतना ही रोमांचक और आकर्षक लगता, जितना नई-नई दाढी और मूँछ को आइने मे गौर से निहारना । उसकी रफ्तार मुझे आकर्षित करती, एक पल को भी उसके अभ्यस्त और सुडौल पैर जरा सी भी नही डगमगाते । जब भी वह सीढियाँ पर दिखाई देती, तो सीढियाँ जीवित लगती, धड़कती । साँसे लेती हुई, बाकी सारे सीढियाँ मूर्दे की तरह शांत पड़ी रहती और उस पर चढने-उतरने वाले कीड़े-मकोड़े की मानिंद लगती ।
मै चोर नजरो से उसे देखा करता था और उसके जाने के बाद मै सबकी तरफ देखता कि किसी ने पकड़ तो नही लिया और जब खुद को अकेला पाता तो आश्वस्त होता । दिल को ठंढी राहत मिलती यद्यपि एक-दो बार ‘रोजी’ मेरे ‘तीरे-नजर’ से आहत हो चुकी थी लेकिन उसने जाहिर नही होने दिया, उसकी (या ऐसे किसी भी लड़की की सहन –शक्ति जिसमें यह क्षमता होती है, वह या तो लूल होती है या फिर चुड़ैल.....) यह सहन-शक्ति मेरे लिए ग्रीन सिग्नल थी ।
ऐसे ही एक शाम वो सीढियाँ उतर रही थी और अचानक वो खिड़की के पास आकर ठिठक गई मेरी नजर उससे मिलते ही मुझे जैसे बिजली का करेंट लगा, वह एक पल को ठहरी......मुझे देखा......... और रफ्तार से गुम हो गई। अब किताब मेरे सामने खुले पड़े थी पर मै उन्हे देख नही पा रहा था, मेरी आँखो के सामने उसका वो मासूम चेहरा देर तक लुका-छिपी करते रहा। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो मैने उठकर दरवाजा खोला.........सन्न रह गया, सामने रोजी खड़ी थी, मेरा मुँह खुला रह गया । इसी बीच रसोई से माँ निकल आई, झनझनाती देह लेकर मै अंदर चला गया, शिकायत......। गए आज काम से..........। मन ही मन शपथ ली कि आज बच जाउँ तो, तो शाम को हनुमान मंदिर में पाँच रुपये का लड्डु चढाउँगा और चरणामृत वाले कटोरे से कभी पैसे नही निकालूँगा । अभी से ऐसी ओछी हरकतें । मैने अपनी आत्मा को धिक्कारा, माँ और पिताजी ने बचपन से सिखाया के बड़ो का आदर करो । और सबसे अधिक दुख इस बात का था कि हमेशा घर से यहीं सीख मिली कि हम उम्र लड़को को भाई और लड़कियों को बहन मानो। वो सीख आज कलंकित हो गई। और अभी उम्र भी क्या है? एकबार पढ-लिखकर नवाब बन गये तो फिर उम्र पड़ी है ऐश करने को ।इस तरह की कई सीखो को दोहराया और भविष्य के लिए नई चेतावनियाँ दर्ज की ।
थोड़ी देर बाद माँ ने आकर कहा कि तैयार हो जाओ, कपड़े बदल लो, रोजी ने अपने जन्मदिन पर बुलाया है। पहले-पहल तो मेरे कुछ समझ नही आया, फिर मुझे लगा कि यह जैसा मेरा पुनर्जन्म है।
मेरे घर के दरवाजे पर वह जितनी सादगीपूर्ण और घरेलु लग रही थी- सती-सावित्री। अपने घर मे ठीक उसके विपरीत किसी विज्ञापन की हसीन मॉडल की तरह। किसी भी लड़की को इस तरह अबतक मैने सिर्फ टीवी पर देखा था। वह विशाल कमरा मेरे सामने आश्चर्य लोक की तरह खुला-पसरा था, झिलमिल रेशमी अंधेरे मे चारो ओर मोमबत्तियाँ.........। सेंटर टेबल पर एक बहुत बड़ा और सुंदर केक दिल की तरह धड़क रहा था। उस केक पर क्रीम की गुलाबी परत चढी थी। सुर्ख लाल क्रीम के अठारह गुलाब खिले थे। सुनहरी क्रीम से लिखा था-----Life begins at Eighteen”| स्वर्णिम आभा से दिपदिपा रहे कमरे सिर्फ हम दौनो थे, मुझे लगा कि किसी ख्वाब की ताबीर ऐसी ही होती है, रहस्यमयी और ऐंन्द्रजालिक।
        मेरे दिल और दिमाग का संतुलन बिगड़ता जा रहा था और कमरे का एकांत पल-पल सघन होने लगा, हम करीब आ गए, फिर सामने। अपने हाथो से गुलाब मैने उसके बालों में लगाया, वह कातिलाना अंदाज मे मुस्कुराई कहने-सुनने को कुछ बचा ही नही, ऐसा लगा जैसे समय इसी एक पल मे समा गया है। गीत के जाने किस शब्द ने दिल को छुआ पैरो मे अनायास हरकत हुई, हम नाचने लगे, अंग्रेजी अंदाज में नाचते हुए हम एक घेरे मे घुम रहे थे, एक अनखिंची परिधी सहज ही तय हो गई, हम नाच रहे थे कमरा भी हमारे नाच में शामिल हो गया। पैरो की थिरकन ने नाच में प्राण फूँक दिए, नाच की गति और एकाग्रता बढ गई, नाच से तेज मेरे दिल की धड़कन थी, नाच की गति पल-पल तेज होती चली गई तेज......संगीत...........नाच,,,,,,,,,,और......प्रकाश...........सब अपने चरमोत्कर्ष पर था।
एकाएक सारी मोमबत्तियाँ थक कर पस्त हो गई, जो जहाँ मुस्तैद थी, वहीं अपना आखिरी निशान छोड़कर निढाल हो गई, संगीत, दिल की धड़कनो सा किसी चुँबकीय सन्नाटे मे डुब गया, नाचती हुई देह गुम हो गई, कमरे मे अंधेरा छा गया।
कैंलेंडर की तारीखे समय से बदल रही थी, रोजी को चढते-उतरते देख मेरे यकीन का साँझ तसल्ली से ढलती। बिना अवकाश वह सीढियाँ पर दिखाई पड़ती...........। एक दिन वह नही दिखी, न सीढियाँ चढते हुए ना उतरते हुए, रात भर मुझे नींद नही आयी, मुझे लगा कि मेरे जीवन से कोई बहुत जरुरी चीज खो गई है। फिर वह कई दिनों के लिए गायब हो सी गई। सीढियाँ अब मुर्दे की तरह शांत पड़ी रहती, उनमें कोई हलचल नही होती, मेरा दिल भी अब स्पंदनहीन होकर देह में अपनी जगह लटका रहता, हालत दिन-ब-दिन विचित्र होती जा रही थी, अब मेरी आँखे हमेशा खुली रहती, मुँदती नही, मै खुली आँखो से जैसे सपने देखता रहता था। जीवन जैसे किसी जकड़बंदी का शिकार हो गया। इसी अबुझ कैद मे लगभग एक पखवाड़ा बीत गया, वह नही दिखी, मै सूनी सीढियों को निहारता रहता।
          एक दोपहर मै घर में पढाई कर रहा था। पास के कमरे से माँ के मोहल्ले की सहेली से बात करने की आवाज आ रही थी। मैने ध्यान नही दिया, अचानक कुछ ऐसे शब्द कानों मे पड़ी की, पूरे शरीर मे झुरझुरी सी दौड़ गई। अब मै पड़ोसन की आवाज सुनने लगा, मिथिलेश सिंह जी बेटी लहेरियासराय टावर के पश्चिम पुलिस थाने के सामने पकड़ी गई एक लड़के के साथ। मकान मालिक ने उन्हे मकान छोड़ने का आदेश दे दिया है, उसके डैडी ने घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी है
          रोजी के बारे में सुनकर मुझे अपना दिल सीढियों की तरह धड़कता हुआ मालूम पड़ा। लगा कि हमेशा की तरह वह रफ्तार से उतर रही है।
          पूरे मोहल्ले में पड़ोसन की विश्वसनीयता संदिग्ध है, यह मै जानता हूँ, सर्वविदित है कि जब वो पड़ोसी पुराण का वाचन करती है, तो उनके जुबान पर त्रेतायुगीन धोबी आकर विराजमान हो जाता है, वे अच्छे-अच्छो को डिगा देती है, मैने प्रण किया कि मै इन बातों पर विश्वास नही करूँगा, निर्णय लेने मे जल्दबाजी मेरी आदत नही है, खासकर लड़कियों के मामले में तो बिल्कुल नही। पड़ोसन की आवाज अब भी आ रही थी, रोजी प्रत्येक दिन उस लड़के से मिलती थी मंदिर जाने के बहाने। पड़ोसन ने भी उसे कई बार रेलवे लाइन के किनारे देखी थी।
इसके बाद माँ का स्वर उभरा, लड़का कौन था, पता चला?
पड़ोसन बोली, हाँ, कन्हैया.....................
 सुनते ही मुझे लगा कि किसी पहाड़ी की चोटी से संतुलन खोकर गिर पड़ा हूँ, आँखो के आगे अंधेरा था, सघन अंधेरा।
           अगर कोई अपने लंगोटिया यार से धोखा खाया हो तो वह इस दर्द को समझ सकता है। मै अपने-आप को ठगा हुआ महसुस कर रहा हूँ। आज के बाद कोई अपने यार पर विश्वास नही करेगा। यह बात ठीक है कि रोजी उसके मकान में रहती थी लेकिन वह प्यार मुझसे करती है। मै उस छोटे बच्चे की तरह रोने लगा जैसे उसका बेशकिमती खिलौना उसके ही दोस्त ने छिन लिया हो।   
यह मेरे लिए जोर का झटका धीरे से था। मै रोजी के साथ मंदिर के बगल में कचहरी वाली गली मे बैठा था मेरे कंधे पर उसका सिर था।
अपनी दरकती हुई आवाज में रोजी ने मुझे बताया कि, कैसे वो उसके(कन्हैया) प्यार में घुलती चली गई। जब कन्हैया और उसके दोस्तो को यह पता लगा कि उसने अपने जन्मदिन पर किसी को नही बुलाया सिर्फ ‘अजीत’ को छोड़कर, तो उसने अपने मन मे ठान लिया कि महीने भर के अंदर वह मोहल्ले की सबसे खुबसुरत लड़की ‘रोजी’ को अपने जाल मे फँसाकर रहेगा। इसके बाद उसने कभी प्रेम पत्र मे अच्छी-अच्छी बातें लिखकर तो कभी उसने आदम जमाने का ‘लेमरेटा’ स्कूटर को स्टार्ट करके ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। उस स्कूटर की आवाज से तो पूरे मोहल्ले का ध्यान आकर्षित हो जाता था और वह तो एक (खुबसुरत)लड़की थी, जिसके लिए स्कूटर स्टार्ट किया जाता था। यह सारे हथकंडे जब विफल होते देख उसने एक दिन सीढी के बीच मे रोककर एक ही साँस मे वह डॉयलोग सुना दिया जिसे सुनकर शायद पत्थर दिल इंसान भी पिघल जाता और वो (रोजी) तो यौवन की दहलीज पर कदम रख रही एक खुबसुरत दिल की मल्लिका थी, यह उम्र ही कुछ ऐसी होती है, जिसमें प्रकृति के हर खिलौने से प्यार हो जाता है जैसे डुबते हुए सुरज को देखना, समंदर की लहरो को देखना, खिलते हुए गुलाब की पंखुड़ियाँ को देखना, उड़ती हुई चिड़ियाँ को देखना, और.......और........सड़क के किनारे स्थित घर की खिड़कियाँ पर बैठना अच्छा लगता है और दूनिया के किसी भी छल-कपट से कोसो दूर तक कोई नाता नही रहता। हाँ तो हम डॉयलॉग पर थे, वह कुछ-कुछ होता हैके शाहरुख खान की तरह घुटने टेककर सिर झुकाकर और उसके हाथ को पकड़कर कहा था कि, तुम्हारे बिना जीना तो क्या जीने का ख्वाब भी नही देख सकता, मै साँसो के बिना तो कुछ पल जी भी सकता हूँ, पर तुम्हारे बिना एक पल भी नही जी सकता, सूर्य अपनी चमक छोड़ दे, चाँद छुप जाएँ, तारे टुटकर बिखर जाएँ, यहाँ तक कि उम्मीद की आखिरी घड़ी भी अपना दम तोड़ दे....... फिर भी मै तुम्हारा इंतजार करुँगा
उसके बाद तो कोई वजह भी नही बनता है उसे ठुकराने की, और उसे यह भी तो मालूम नही कि उसे कोई प्यार करता भी है या नही?

लिखूँ तो क्या लिखूँ, दिल मेरा मदहोश है।
आसूँ भी टपक रहे है, और कलम भी खामोश है॥    

उसे उसके परिवार के साथ उस मकान से निकाला जा चूका था और उसके किराया के बकाया की जिम्मेदारी उसकी छोटी बहन के एक वकील मित्र ने ली थी, उधर उसका प्रेमी अपने घर से बगावत करके ‘कोलकाता’ भाग गया था। उसके घरवाले कयास लगा रहे थे, शायद शादी के लिए पैसा कमाने गया होगा। उसके बाबूजी उससे मजाक मे बोलते रहते थे, स्साले को शादी नही करवा रहे है इसिलिए दाढी बढाकर मजनूँ बना घुम रहा है। या फिर ये कि, जैसे ही ये कनपटी छँटा कर छत पर घुमने जाता है, तो मुझे शंका होता रहता है कि कुछ ना कुछ तो करेगा
अगले दिन दोपहर मे, मै घर में सो रहा था कि, फिर से पड़ोसन की आवाज आ रही थी, बड़े अच्छे घर का लड़का है दिखने मे भी बहुत सुंदर है और पुलिस में नौकरी करता है, दहेज में भी कुछ नही माँगा, कह रहा था पिछले दो साल से ‘रोजी’ का पीछा कर रहा था। तब माँ बोली कि, देखो समय कैसा आ पड़ा है...........और ये उमर भी तो निगोड़ी। कैसे, कब, कहाँ पाँव फिसल जाय नादानी में..........? अब क्या कहना, उस लड़के की जगह मेरा बेटा ‘अजीत’ ही होता तो...................!!!